आज कल देश में एक बहुत बड़ी बहस चल रही है , की प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश को लोकपाल के दायरे में लाया जाए या नहीं? अपने आपको स्वघोषित सिविल सोसाइटी कहकर पूरे देश का ठेका लेने वाले कहते है की इन दोनों को लोकपाल के दायरे में लाया जाना चाहिए. वही दूसरी ओर रामदेव बाबा कहते है की इनको लोकपाल के दायरे में नहीं लाना चाहिए. कांग्रेस तो पहले से ही इसके खिलाफ रही है, तो वही सुषमा स्वराज ने यह कह कर अपनी मंशा स्पष्ट कर दी है की अटल जी इनको लोकपाल के दायरे में लाना चाहते थे . चिदंबरम तो कहते है की तथाकथित सिविल सोसाइटी में भी मतभेद है.
तो फिर प्रश्न उठता है की सही क्या है? लेकिन हम इस प्रश्न का उत्तर देने नहीं बैठे , क्योंकि सही तो बहुत कुछ है ,पर होता वैसा कुछ भी नहीं है. हम यह देखेंगे की क्या ये संभव है की इन दोनों को लोकपाल के दायरे में ला दिया जाए? यहाँ पर चार परिस्थितियों की कल्पना की जा सकती है .हम यहाँ प्रत्येक परिस्थिति को गहराई से जांचेंगे व महसूस करेंगे .
१)प्रधानमंत्री व मुख्यन्यायाधीश भी ईमानदार और लोकपाल भी ईमानदार- यह एक ऐसी स्थिति है जिसे चाहते सभी है पर ऐसा हो पाना बहुत ही मुश्किल. और अगर ऐसा हो जाता है तो फिर लोकपाल की आवश्यकता ही नहीं रह जायेगी.
२)प्रधानमंत्री व मुख्यन्यायाधीश भ्रष्ट और लोकपाल ईमानदार- ऐसी स्थिति में लोकपाल की ज़िम्मेदारी होगी की वह उन्हें सज़ा दे.पर जरा सोचिये लोकपाल उनको सजा देगा क्या? संविधान के प्रावधानों के अनुसार जब तक संसद में बहुमत प्रधानमंत्री के साथ है उन्हें कोई नहीं हटा सकता .और जब तक प्रधानमंत्री हटेंगे नहीं तब तक भ्रष्टाचार भी नहीं रुकने वाला.जहां तक मुख्यन्यायाधीश की बात है उन्हें हटाना तो और भी मुश्किल है क्योंकि उसके लिए एक बहुत ही लम्बी प्रक्रिया से गुजरते हुए ,संसद में दो-तिहाई बहुमत का समर्थन हासिल करना होगा . तो ऐसे में लोकपाल की उपियोगिता क्या है? इससे क्या फरक पड़ता है की लोकपाल के अंतर्गत ये दोनों आये या ना आयें?
३) प्रधानमंत्री व मुख्यन्यायाधीश ईमानदार और लोकपाल भ्रष्ट- अगर इन दोनों को लोकपाल के दायरे में लाने के बाद ऐसी किसी परिस्थिति से रूबरू होना पड़ा तो एक बहुत बड़ी समस्या पैदा हो जायेगी. लोकपाल अपने निजी हितों को ध्यान में रखकर सरकर व साथ ही साथ न्यायपालिका को भी प्रभावित करेगा. ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री अथवा मुख्या न्यायाधीश स्वतंत्र होकर फैसले कैसे ले पायेंगे? क्या इससे भारत के लोकतंत्र पर ही खतरा पैदा नहीं हो जाएगा? क्या भारत की सार्वभौमिकता ही समाप्त नहीं हो जायेगी? अभी तो सरकर कुछ गलत करती है तो न्यायलय उस पर अंकुश लगाती है ,पर ऐसी स्थिति में जब लोकपाल इन दोनों ही पदों के ऊपर होगा तो उस पर अंकुश कौन लगाएगा? और ये पक्का है की ऐसी किसी स्थिति का सामना हमे ज़रूर करना पड़ेगा , क्योंकि कौन यह बता सकता है की अगले १०० सालों तक जितने भी लोकपाल होंगे वे सब स्वच्छ ,ईमानदार व दूध से धुले हुए होंगे? क्या अन्ना हजारे उन्हें सीधे स्वर्ग से लायेंगे? इसकी क्या गारंटी है की निर्णय लेते वक़्त लोकपाल की निजी आकांक्षाएं बीच में नहीं आएगी?
जब १२१ करोड़ लोगों द्वारा चुना हुआ प्रधानमंत्री गलत व भ्रष्ट हो सकता है, बहुत ही ध्यान से और बिना किसी राजनितिक हस्तक्षेप के चुना हुआ मुख्यन्यायाधीश गलत और भ्रष्ट हो सकता है ,तो फिर लोकपाल क्यों नहीं भ्रष्ट हो सकता? प्रधानमंत्री और मुख्यन्यायाधीश को यह पद विरासत में नहीं मिला है ,उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी लगा कर इसे अर्जित किया है. मगर लोकपाल को यह पद बिना किसी क़ुरबानी के ही मिल जाएगा. ऐसे में यह एक तरह से लोकपाल की राजशाही- तानाशाही का भी रूप ले सकती है.
४)प्रधानमंत्री व मुख्य न्यायाधीश भ्रष्ट और लोकपाल भी भ्रष्ट- ऐसी स्थिति में लोकपाल अपने आप ही बे-असर हो जाएगा. लोकपाल अपने निजी स्वार्थ इन दोनों से निकालेगा और ये दोनों अपने निजी स्वार्थ लोकपाल से निकलवाएंगे.लोकपाल सरकर के हाथों की कठपुतली बन के रह जाएगा ,ठीक उसी तरह जिस तरह आज सीबीआई बना हुआ है.
ऊपर लिखित चारों ही परिस्थितियों में लोकपाल प्रधानमंत्री व मुख्यन्यायाधीश द्वारा किया गया भ्रष्टाचार मिटाने में समर्थ नहीं है. ऐसे में इस विषय पे कोई भी बहस अनावश्यक है, व सिर्फ समय और धन की बर्बादी है ,क्योंकि ऐसी कोई परिस्थिति जिसका सपना अन्ना की टीम खुद देख रही है व लोगों को दिखा रही है, वह मुमकिन ही नहीं है.
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