पिछले दिनों जो चुनाव परिणाम आये है उसमे कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है. ममता बनर्जी की लालदुर्ग की विजय हो ,या फिर द्रमुक का सफाया, कुछ भी विस्मयकारी नहीं था. लेकिन इन चुनाव परिणामों में अगर किसी बात के अध्ययन की सबसे ज्यादा ज़रुरत है , तो वो है चर्च-मुस्लिम वोटबैंक.
सबसे पहले अगर पश्चिम बंगाल की बात करें तो, कम्युनिस्ट हमेशा से ही वहां मुस्लिम वोटबैंक के सहारे जीतते रहे है.वहां पर कई सीटों पर मुस्लिम बहुसंख्यक है. अगर हम उन सीटों के परिणामों की विस्तार से मीमांसा करें तो यह पायेंगे की इस बार मुस्लिम ममता बनर्जी के साथ खड़ा था. ममता बनर्जी ने अपने अभियान का नाम भी लाल क्रान्ति के विरुद्ध हरी क्रांति रखा था.
बंगाल में मुस्लिमों के अलावा अगर देखा जाए तो नक्सली प्रभाव भी अपना काम करता है. इस बार ममता बनर्जी ने नक्सलियों से तालमेल बैठा कर ,उन्हें अपनी तरफ खींच लिया था. इसका भी ममता को बहुत बड़ा फायदा मिला है. इस तरह से कम्युनिस्टों की जो मूल ताकत है ,उसे ममता ने इस बार अपनी ताकत बना ली और कम्युनिस्टों को मुंह की खानी पड़ी.
केरला और आसाम में भी मुस्लिम वोटबैंक अपने स्वाभाविक पसंद से पीछे हटा है.केरला में इस बार कम्युनिस्ट फ्रंट के सफल होने का मुख्या कारण यह था की चर्च और मुस्लिम दोनों ही तरह के मतदाता इस बार कांग्रेस के साथ हो गए, और हिन्दू मतदाताओं ने इसके जवाब में कम्युनिस्टों को वोट दिए. केरला में जब से अच्युतानंद ने जिहाद के खिलाफ आवाज उठाई है ,मुस्लिम कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़ रहे है.
आसाम में तरुण गोगोई ने बांग्लादेशी मुसलामानों का मुद्दा उठा के हिन्दुओं को अपनी तरफ खींचा है. केंद्र सरकार से अलग नीति अपनाते हुए तरुण गोगोई ने हिन्दुओं की चिंताओं की तरफ ध्यान दिया, और उसे चुनावी मुद्दा भी बनाया. वहीँ दूसरी ओर अगप और भाजपा ने इसलिए चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं किया, ताकि मुस्लिम वोट हाथ से न खिसक जाए, और चुनाव से पूर्व ये भी प्रचार हुआ की भाजपा-अगप -एआईयूदीअफ मिलकर सरकार बना सकते हैं, इसलिए हिन्दुओं ने कांग्रेस के साथ जाने में ही अपनी भलाई समझी. और मुस्लिम वोट एआईयूदीअफ को मिले. भाजपा-अगप न घर की रही न घाट की .
सबसे पहले अगर पश्चिम बंगाल की बात करें तो, कम्युनिस्ट हमेशा से ही वहां मुस्लिम वोटबैंक के सहारे जीतते रहे है.वहां पर कई सीटों पर मुस्लिम बहुसंख्यक है. अगर हम उन सीटों के परिणामों की विस्तार से मीमांसा करें तो यह पायेंगे की इस बार मुस्लिम ममता बनर्जी के साथ खड़ा था. ममता बनर्जी ने अपने अभियान का नाम भी लाल क्रान्ति के विरुद्ध हरी क्रांति रखा था.
बंगाल में मुस्लिमों के अलावा अगर देखा जाए तो नक्सली प्रभाव भी अपना काम करता है. इस बार ममता बनर्जी ने नक्सलियों से तालमेल बैठा कर ,उन्हें अपनी तरफ खींच लिया था. इसका भी ममता को बहुत बड़ा फायदा मिला है. इस तरह से कम्युनिस्टों की जो मूल ताकत है ,उसे ममता ने इस बार अपनी ताकत बना ली और कम्युनिस्टों को मुंह की खानी पड़ी.
केरला और आसाम में भी मुस्लिम वोटबैंक अपने स्वाभाविक पसंद से पीछे हटा है.केरला में इस बार कम्युनिस्ट फ्रंट के सफल होने का मुख्या कारण यह था की चर्च और मुस्लिम दोनों ही तरह के मतदाता इस बार कांग्रेस के साथ हो गए, और हिन्दू मतदाताओं ने इसके जवाब में कम्युनिस्टों को वोट दिए. केरला में जब से अच्युतानंद ने जिहाद के खिलाफ आवाज उठाई है ,मुस्लिम कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़ रहे है.
आसाम में तरुण गोगोई ने बांग्लादेशी मुसलामानों का मुद्दा उठा के हिन्दुओं को अपनी तरफ खींचा है. केंद्र सरकार से अलग नीति अपनाते हुए तरुण गोगोई ने हिन्दुओं की चिंताओं की तरफ ध्यान दिया, और उसे चुनावी मुद्दा भी बनाया. वहीँ दूसरी ओर अगप और भाजपा ने इसलिए चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं किया, ताकि मुस्लिम वोट हाथ से न खिसक जाए, और चुनाव से पूर्व ये भी प्रचार हुआ की भाजपा-अगप -एआईयूदीअफ मिलकर सरकार बना सकते हैं, इसलिए हिन्दुओं ने कांग्रेस के साथ जाने में ही अपनी भलाई समझी. और मुस्लिम वोट एआईयूदीअफ को मिले. भाजपा-अगप न घर की रही न घाट की .
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