SANSKRITIK BHARAT
This blog is reflection of my state of mind...emotions...and my views on the current state of my country and its people...especially in context to sanatan dharma...
Bharat mata
Tuesday, November 26, 2013
Monday, November 11, 2013
जब पोरस ने सिकन्दर(Alexander) के सर से विश्व-विजेता बनने का भूत उतारा...
जितना बड़ा अन्याय और धोखा इतिहासकारों ने महान पौरस के साथ किया है उतना बड़ा अन्याय इतिहास में शायद ही किसी के साथ हुआ होगा।एक महान नीतिज्ञ,दूरदर्शी,शक्तिशाली वीर विजयी राजा को निर्बल और पराजित राजा बना दिया गया....
चूँकि सिकन्दर पूरे यूनान,ईरान,ईराक,बैक्ट्रिया आदि को जीतते हुए आ रहा था इसलिए भारत में उसके पराजय और अपमान को यूनानी इतिहासकार सह नहीं सके और अपने आपको दिलासा देने के लिए अपनी एक मन-गढंत कहानी बनाकर उस इतिहास को लिख दिए जो वो लिखना चाह रहे थे या कहें कि जिसकी वो आशा लगाए बैठे थे..यह ठीक वैसा ही है जैसा कि हम जब कोई बहुत सुखद स्वप्न देखते हैं और वो स्वप्न पूरा होने के पहले ही हमारी नींद टूट जाती है तो हम फिर से सोने की कोशिश करते हैं और उस स्वप्न में जाकर उस कहानी को पूरा करने की कोशिश करते हैं जो अधूरा रह गया था.. आलसीपन तो भारतीयों में इस तरह हावी है कि भारतीय इतिहासकारों ने भी बिना सोचे-समझे उसी यूनानी इतिहास को लिख दिया...
कुछ हिम्मत ग्रीक के फिल्म-निर्माता ओलिवर स्टोन ने दिखाई है जो उन्होंने कुछ हद तक सिकन्दर की हार को स्वीकार किया है..फिल्म में दिखाया गया है कि एक तीर सिकन्दर का सीना भेद देती है और इससे पहले कि वो शत्रु के हत्थे चढ़ता उससे पहले उसके सहयोगी उसे ले भागते हैं.इस फिल्म में ये भी कहा गया है कि ये उसके जीवन की सबसे भयानक त्रासदी थी और भारतीयों ने उसे तथा उसकी सेना को पीछे लौटने के लिए विवश कर दिया..चूँकि उस फिल्म का नायक सिकन्दर है इसलिए उसकी इतनी सी भी हार दिखाई गई है तो ये बहुत है,नहीं तो इससे ज्यादा सच दिखाने पर लोग उस फिल्म को ही पसन्द नहीं करते..वैसे कोई भी फिल्मकार अपने नायक की हार को नहीं दिखाता है.......
अब देखिए कि भारतीय बच्चे क्या पढ़ते हैं इतिहास में--"सिकन्दर ने पौरस को बंदी बना लिया था..उसके बाद जब सिकन्दर ने उससे पूछा कि उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाय तो पौरस ने कहा कि उसके साथ वही किया जाय जो एक राजा के साथ किया जाता है अर्थात मृत्यु-दण्ड..सिकन्दर इस बात से इतना अधिक प्रभावित हो गया कि उसने वो कार्य कर दिया जो अपने जीवन भर में उसने कभी नहीं किए थे..उसने अपने जीवन के एक मात्र ध्येय,अपना सबसे बड़ा सपना विश्व-विजेता बनने का सपना तोड़ दिया और पौरस को पुरस्कार-स्वरुप अपने जीते हुए कुछ राज्य तथा धन-सम्पत्ति प्रदान किए..तथा वापस लौटने का निश्चय किया और लौटने के क्रम में ही उसकी मृत्यु हो गई.."
ये कितना बड़ा तमाचा है उन भारतीय इतिहासकारों के मुँह पर कि खुद विदेशी ही ऐसी फिल्म बनाकर सिकंदर की हार को स्वीकार कर रहे रहे हैं और हम अपने ही वीरों का इसतरह अपमान कर रहे हैं......!!
मुझे तो लगता है कि ये भारतीयों का विशाल हृदयतावश उनका त्याग था जो अपनी इतनी बड़ी विजय गाथा यूनानियों के नाम कर दी..भारत दयालु और त्यागी है यह बात तो जग-जाहिर है और इस बात का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है..?क्या ये भारतीय इतिहासकारों की दयालुता की परिसीमा नहीं है..? वैसे भी रखा ही क्या था इस विजय-गाथा में; भारत तो ऐसी कितनी ही बड़ी-बड़ी लड़ाईयाँ जीत चुका है कितने ही अभिमानियों का सर झुका चुका है फिर उन सब विजय गाथाओं के सामने इस विजय-गाथा की क्या औकात.....है ना..?? उस समय भारत में पौरस जैसे कितने ही राजा रोज जन्मते थे और मरते थे तो ऐसे में सबका कितना हिसाब-किताब रखा जाय;वो तो पौरस का सौभाग्य था जो उसका नाम सिकन्दर के साथ जुड़ गया और वो भी इतिहास के पन्नों में अंकित हो गया(भले ही हारे हुए राजा के रुप में ही सही) नहीं तो इतिहास पौरस को जानती भी नहीं..
इतिहास सिकन्दर को विश्व-विजेता घोषित करती है पर अगर सिकन्दर ने पौरस को हरा भी दिया था तो भी वो विश्व-विजेता कैसे बन गया..? पौरस तो बस एक राज्य का राजा था..भारत में उस तरक के अनेक राज्य थे तो पौरस पर सिकन्दर की विजय भारत की विजय तो नहीं कही जा सकती और भारत तो दूर चीन,जापान जैसे एशियाई देश भी तो जीतना बाँकी ही था फिर वो विश्व-विजेता कहलाने का अधिकारी कैसे हो गया...?
जाने दीजिए....भारत में तो ऐसे अनेक राजा हुए जिन्होंने पूरे विश्व को जीतकर राजसूय यज्य करवाया था पर बेचारे यूनान के पास तो एक ही घिसा-पिटा योद्धा कुछ हद तक है ऐसा जिसे विश्व-विजेता कहा जा सकता है....तो.! ठीक है भाई यूनान वालों,संतोष कर लो उसे विश्वविजेता कहकर...!
महत्त्वपूर्ण बात ये कि सिकन्दर को सिर्फ विश्वविजेता ही नहीं बल्कि महान की उपाधि भी प्रदान की गई है और ये बताया जाता है कि सिकन्दर बहुत बड़ा हृदय वाला दयालु राजा था ताकि उसे महान घोषित किया जा सके क्योंकि सिर्फ लड़ कर लाखों लोगों का खून बहाकर एक विश्व-विजेता को महान की उपाधि नहीं दी सकती ना ; उसके अंदर मानवता के गुण भी होने चाहिए.इसलिए ये भी घोषित कर दिया गया कि सिकन्दर विशाल हृदय वाला एक महान व्यक्ति था..पर उसे महान घोषित करने के पीछे एक बहुत बड़ा उद्देश्य छुपा हुआ है और वो उद्देश्य है सिकन्दर की पौरस पर विजय को सिद्ध करना...क्योंकि यहाँ पर सिकन्दर की पौरस पर विजय को तभी सिद्ध किया जा सकता है जब यह सिद्ध हो जाय कि सिकन्दर बड़ा हृदय वाला महान व्यक्ति था..
अरे अगर सिकन्दर बड़ा हृदय वाला व्यक्ति होता तो उसे धन की लालच ना होती जो उसे भारत तक ले आई थी और ना ही धन के लिए इतने लोगों का खून बहाया होता उसने..इस बात को उस फिल्म में भी दिखाया गया है कि सिकन्दर को भारत के धन(सोने,हीरे-मोतियों) से लोभ था.. यहाँ ये बात सोचने वाली है कि जो व्यक्ति धन के लिए इतनी दूर इतना कठिन रास्ता तय करके भारत आ जाएगा वो पौरस की वीरता से खुश होकर पौरस को जीवन-दान भले ही दे देगा और ज्यादा से ज्यादा उसकी मूल-भूमि भले ही उसे सौंप देगा पर अपना जीता हुआ प्रदेश पौरस को क्यों सौंपेगा..और यहाँ पर यूनानी इतिहासकारों की झूठ देखिए कैसे पकड़ा जाती है..एक तरफ तो पौरस पर विजय सिद्ध करने के लिए ये कह दिया उन्होंने कि सिकन्दर ने पौरस को उसका तथा अपना जीता हुआ प्रदेश दे दिया दूसरी तरफ फिर सिकन्दर के दक्षिण दिशा में जाने का ये कारण देते हैं कि और अधिक धन लूटने तथा और अधिक प्रदेश जीतने के लिए सिकन्दर दक्षिण की दिशा में गया...बताइए कि कितना बड़ा कुतर्क है ये....! सच्चाई ये थी कि पौरस ने उसे उत्तरी मार्ग से जाने की अनुमति ही नहीं दी थी..ये पौरस की दूरदर्शिता थी क्योंकि पौरस को शक था कि ये उत्तर से जाने पर अपनी शक्ति फिर से इकट्ठा करके फिर से हमला कर सकता है जैसा कि बाद में मुस्लिम शासकों ने किया भी..पौरस को पता था कि दक्षिण की खूँखार जाति सिकन्दर को छोड़ेगी नहीं और सच में ऐसा हुआ भी...उस फिल्म में भी दिखाया गया है कि सिकन्दर की सेना भारत की खूँखार जन-जाति से डरती है ..
अब बताइए कि जो पहले ही डर रहा हो वो अपने जीते हुए प्रदेश यनि उत्तर की तरफ से वापस जाने के बजाय मौत के मुँह में यनि दक्षिण की तरफ से क्यों लौटेगा तथा जो व्यक्ति और ज्यादा प्रदेश जीतने के लिए उस खूँखार जनजाति से भिड़ जाएगा वो अपना पहले का जीता हुआ प्रदेश एक पराजित योद्धा को क्यों सौंपेगा....? और खूँखार जनजाति के पास कौन सा धन मिलने वाला था उसे.....?
अब देखिए कि सच्चाई क्या है....
जब सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार किया तो भारत में उत्तरी क्षेत्र में तीन राज्य थे-झेलम नदी के चारों ओर राजा अम्भि का शासन था जिसकी राजधानी तक्षशिला थी..पौरस का राज्य चेनाब नदी से लगे हुए क्षेत्रों पर था.तीसरा राज्य अभिसार था जो कश्मीरी क्षेत्र में था.अम्भि का पौरस से पुराना बैर था इसलिए सिकन्दर के आगमण से अम्भि खुश हो गया और अपनी शत्रुता निकालने का उपयुक्त अवसर समझा..अभिसार के लोग तटस्थ रह गए..इस तरह पौरस ने अकेले ही सिकन्दर तथा अम्भि की मिली-जुली सेना का सामना किया.."प्लूटार्च" के अनुसार सिकन्दर की बीस हजार पैदल सैनिक तथा पन्द्रह हजार अश्व सैनिक पौरस की युद्ध क्षेत्र में एकत्र की गई सेना से बहुत ही अधिक थी..सिकन्दर की सहायता फारसी सैनिकों ने भी की थी..कहा जाता है कि इस युद्ध के शुरु होते ही पौरस ने महाविनाश का आदेश दे दिया उसके बाद पौरस के सैनिकों ने तथा हाथियों ने जो विनाश मचाना शुरु किया कि सिकन्दर तथा उसके सैनिकों के सर पर चढ़े विश्वविजेता के भूत को उतार कर रख दिया..पोरस के हाथियों द्वारा यूनानी सैनिकों में उत्पन्न आतंक का वर्णन कर्टियस ने इस तरह से किया है--इनकी तुर्यवादक ध्वनि से होने वाली भीषण चीत्कार न केवल घोड़ों को भयातुर कर देती थी जिससे वे बिगड़कर भाग उठते थे अपितु घुड़सवारों के हृदय भी दहला देती थी..इन पशुओं ने ऐसी भगदड़ मचायी कि अनेक विजयों के ये शिरोमणि अब ऐसे स्थानों की खोज में लग गए जहाँ इनको शरण मिल सके.उन पशुओं ने कईयों को अपने पैरों तले रौंद डाला और सबसे हृदयविदारक दृश्य वो होता था जब ये स्थूल-चर्म पशु अपनी सूँड़ से यूनानी सैनिक को पकड़ लेता था,उसको अपने उपर वायु-मण्डल में हिलाता था और उस सैनिक को अपने आरोही के हाथों सौंप देता था जो तुरन्त उसका सर धड़ से अलग कर देता था.इन पशुओं ने घोर आतंक उत्पन्न कर दिया था.....
इसी तरह का वर्णन "डियोडरस" ने भी किया है --विशाल हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए..उन्होंने अपने पैरों तले बहुत सारे सैनिकों की हड्डियाँ-पसलियाँ चूर-चूर कर दी.हाथी इन सैनिकों को अपनी सूँड़ों से पकड़ लेते थे और जमीन पर जोर से पटक देते थे..अपने विकराल गज-दन्तों से सैनिकों को गोद-गोद कर मार डालते थे...
इन पशुओं का आतंक उस फिल्म में भी दिखाया गया है..
अब विचार करिए कि डियोडरस का ये कहना कि उन हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए ये क्या सिद्ध करता है..फिर "कर्टियस" का ये कहना कि इन पशुओं ने आतंक मचा दिया था ये क्या सिद्ध करता है...?
अफसोस की ही बात है कि इस तरह के वर्णन होते हुए भी लोग यह दावा करते हैं कि पौरस को पकड़ लिया गया और उसके सेना को शस्त्र त्याग करने पड़े...
एक और विद्वान ई.ए. डब्ल्यू. बैज का वर्णन देखिए-उनके अनुसार झेलम के युद्ध में सिकन्दर की अश्व-सेना का अधिकांश भाग मारा गया था.सिकन्दर ने अनुभव कर लिया कि यदि अब लड़ाई जारी रखूँगा तो पूर्ण रुप से अपना नाश कर लूँगा.अतः सिकन्दर ने पोरस से शांति की प्रार्थना की -"श्रीमान पोरस मैंने आपकी वीरता और सामर्थ्य स्वीकार कर ली है..मैं नहीं चाहता कि मेरे सारे सैनिक अकाल ही काल के गाल में समा जाय.मैं इनका अपराधी हूँ,....और भारतीय परम्परा के अनुसार ही पोरस ने शरणागत शत्रु का वध नहीं किया.----ये बातें किसी भारतीय द्वारा नहीं बल्कि एक विदेशी द्वारा कही गई है..
और इसके बाद भी अगर कोई ना माने तो फिर हम कैसे मानें कि पोरस के सिर को डेरियस के सिर की ही भांति काट लाने का शपथ लेकर युद्ध में उतरे सिकन्दर ने न केवल पोरस को जीवन-दान दिया बल्कि अपना राज्य भी दिया...
सिकन्दर अपना राज्य उसे क्या देगा वो तो पोरस को भारत के जीते हुए प्रदेश उसे लौटाने के लिए विवश था जो छोटे-मोटे प्रदेश उसने पोरस से युद्ध से पहले जीते थे...(या पता नहीं जीते भी थे या ये भी यूनानियों द्वारा गढ़ी कहानियाँ हैं)
इसके बाद सिकन्दर को पोरस ने उत्तर मार्ग से जाने की अनुमति नहीं दी.विवश होकर सिकन्दर को उस खूँखार जन-जाति के कबीले वाले रास्ते से जाना पड़ा जिससे होकर जाते-जाते सिकन्दर इतना घायल हो गया कि अंत में उसे प्राण ही त्यागने पड़े..इस विषय पर "प्लूटार्च" ने लिखा है कि मलावी नामक भारतीय जनजाति बहुत खूँखार थी..इनके हाथों सिकन्दर के टुकड़े-टुकड़े होने वाले थे लेकिन तब तक प्यूसेस्तस और लिम्नेयस आगे आ गए. इसमें से एक तो मार ही डाला गया और दूसरा गम्भीर रुप से घायल हो गया...तब तक सिकन्दर के अंगरक्षक उसे सुरक्षित स्थान पर लेते गए..
स्पष्ट है कि पोरस के साथ युद्ध में तो इनलोगों का मनोबल टूट ही चुका था रहा सहा कसर इन जनजातियों ने पूरी कर दी थी..अब इनलोगों के अंदर ये तो मनोबल नहीं ही बचा था कि किसी से युद्ध करे पर इतना भी मनोबल शेष ना रह गया था कि ये समुद्र मार्ग से लौटें...क्योंकि स्थल मार्ग के खतरे को देखते हुए सिकन्दर ने समुद्र मार्ग से जाने का सोचा और उसके अनुसंधान कार्य के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेज भी दी पर उनलोगों में इतना भी उत्साह शेष ना रह गया था फलतः वे बलुचिस्तान के रास्ते ही वापस लौटे....
अब उसके महानता के बारे में भी कुछ विद्वानों के वर्णन देखिए...
एरियन के अनुसार जब बैक्ट्रिया के बसूस को बंदी बनाकर सिकन्दर के सम्मुख लाया गया तब सिकन्दर ने अपने सेवकों से उसको कोड़े लगवाए तथा उसके नाक और कान काट कटवा दिए गए.बाद में बसूस को मरवा ही दिया गया.सिकन्दर ने कई फारसी सेनाध्यक्षों को नृशंसतापूर्वक मरवा दिया था.फारसी राजचिह्नों को धारण करने पर सिकन्दर की आलोचना करने के लिए उसने अपने ही गुरु अरस्तु के भतीजे कालस्थनीज को मरवा डालने में कोई संकोच नहीं किया.क्रोधावस्था में अपने ही मित्र क्लाइटस को मार डाला.उसके पिता का विश्वासपात्र सहायक परमेनियन भी सिकन्दर के द्वारा मारा गया था..जहाँ पर भी सिकन्दर की सेना गई उसने समस्त नगरों को आग लगा दी,महिलाओं का अपहरण किया और बच्चों को भी तलवार की धार पर सूत दिया..ईरान की दो शाहजादियों को सिकन्दर ने अपने ही घर में डाल रखा था.उसके सेनापति जहाँ-कहीं भी गए अनेक महिलाओं को बल-पूर्वक रखैल बनाकर रख लिए...
तो ये थी सिकन्दर की महानता....इसके अलावे इसके पिता फिलिप की हत्या का भी शक इतिहास ने इसी पर किया है कि इसने अपनी माता के साथ मिलकर फिलिप की हत्या करवाई क्योंकि फिलिप ने दूसरी शादी कर ली थी और सिकन्दर के सिंहासन पर बैठने का अवसर खत्म होता दिख रहा था..इस बात में किसी को संशय नहीं कि सिकन्दर की माता फिलिप से नफरत करती थी..दोनों के बीच सम्बन्ध इतने कटु थे कि दोनों अलग होकर जीवन बीता रहे थे...इसके बाद इसने अपने सौतेले भाई को भी मार डाला ताकि सिंहासन का और कोई उत्तराधिकारी ना रहे...
तो ये थी सिकन्दर की महानता और वीरता....
इसकी महानता का एक और उदाहरण देखिए-जब इसने पोरस के राज्य पर आक्रमण किया तो पोरस ने सिकन्दर को अकेले-अकेले यनि द्वंद्व युद्ध का निमंत्रण भेजा ताकि अनावश्यक नरसंहार ना हो और द्वंद्व युद्ध के जरिए ही निर्णय हो जाय पर इस वीरतापूर्ण निमंत्रण को सिकन्दर ने स्वीकार नहीं किया...ये किमवदन्ती बनकर अब तक भारत में विद्यमान है.इसके लिए मैं प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं समझता हूँ..
अब निर्णय करिए कि पोरस तथा सिकन्दर में विश्व-विजेता कौन था..? दोनों में वीर कौन था..?दोनों में महान कौन था..?
यूनान वाले सिकन्दर की जितनी भी विजय गाथा दुनिया को सुना ले सच्चाई यही है कि ना तो सिकन्दर विश्वविजेता था ना ही वीर(पोरस के सामने) ना ही महान(ये तो कभी वो था ही नहीं)....
जिस पोरस ने सिकन्दर जो लगभग पूरा विश्व को जीतता हुआ आ रहा था जिसके पास उतनी बड़ी विशाल सेना थी जिसका प्रत्यक्ष सहयोग अम्भि ने किया था उस सिकन्दर के अभिमान को अकेले ही चकना-चूरित कर दिया,उसके मद को झाड़कर उसके सर से विश्व-विजेता बनने का भूत उतार दिया उस पोरस को क्या इतिहास ने उचित स्थान दिया है......!...?
भारतीय इतिहासकारों ने तो पोरस को इतिहास में स्थान देने योग्य समझा ही नहीं है.इतिहास में एक-दो जगह इसका नाम आ भी गया तो बस सिकन्दर के सामने बंदी बनाए गए एक निर्बल निरीह राजा के रुप में..नेट पर भी पोरस के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है.....
आज आवश्यकता है कि नेताओं को धन जमा करने से अगर अवकाश मिल जाय तो वे इतिहास को फिर से जाँचने-परखने का कार्य करवाएँ ताकि सच्चाई सामने आ सके और भारतीय वीरों को उसका उचित सम्मान मिल सके..मैं नहीं मानता कि जो राष्ट्र वीरों का इस तरह अपमान करेगा वो राष्ट्र ज्यादा दिन तक टिक पाएगा...मानते हैं कि ये सब घटनाएँ बहुत पुरानी हैं इसके बाद भारत पर हुए अनेक हमले के कारण भारत का अपना इतिहास तो विलुप्त हो गया और उसके बाद मुसलमान शासकों ने अपनी झूठी-प्रशंसा सुनकर आनन्द प्राप्त करने में पूरी इतिहास लिखवाकर खत्म कर दी और जब देश आजाद हुआ भी तो कांग्रेसियों ने इतिहास लेखन का काम धूर्त्त अंग्रेजों को सौंप दिया ताकि वो भारतीयों को गुलम बनाए रखने का काम जारी रखे और अंग्रेजों ने इतिहास के नाम पर काल्पनिक कहानियों का पुलिंदा बाँध दिया ताकि भारतीय हमेशा यही समझते रहें कि उनके पूर्वज निरीह थे तथा विदेशी बहुत ही शक्तिशाली ताकि भारतीय हमेशा मानसिक गुलाम बने रहें विदेशियों का,पर अब तो कुछ करना होगा ना..???
इस लेख से एक और बात सिद्ध होती है कि जब भारत का एक छोटा सा राज्य अगर अकेले ही सिकन्दर को धूल चटा सकता है तो अगर भारत मिलकर रहता और आपस में ना लड़ता रहता तो किसी मुगलों या अंग्रेजों में इतनी शक्ति नहीं थी कि वो भारत का बाल भी बाँका कर पाता.कम से कम अगर भारतीय दुश्मनों का साथ ना देते तो भी उनमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वो भारत पर शासन कर पाते.भारत पर विदेशियों ने शासन किया है तो सिर्फ यहाँ की
आपसी दुश्मनी के कारण..
भारत में अनेक वीर पैदा हो गए थे एक ही साथ और यही भारत की बर्बादी का कारण बन गया क्योंकि सब शेर आपस में ही लड़ने लगे...महाभारत काल में इतने सारे महारथी,महावीर पैदा हो गए थे तो महाभारत का विध्वंशक युद्ध हुआ और आपस में ही लड़ मरने के कारण भारत तथा भारतीय संस्कृति का विनाश हो गया उसके बाद कलयुग में भी वही हुआ..जब भी किसी जगह वीरों की संख्या ज्यादा हो जाएगी तो उस जगह की रचना होने के बजाय विध्वंश हो जाएगा...
पर आज जरुरत है भारतीय शेरों को एक होने की...........क्योंकि अभी भारत में शेरों की बहुत ही कमी है और जरुरत है भारत की पुनर्रचना करने की......
चूँकि सिकन्दर पूरे यूनान,ईरान,ईराक,बैक्ट्रिया आदि को जीतते हुए आ रहा था इसलिए भारत में उसके पराजय और अपमान को यूनानी इतिहासकार सह नहीं सके और अपने आपको दिलासा देने के लिए अपनी एक मन-गढंत कहानी बनाकर उस इतिहास को लिख दिए जो वो लिखना चाह रहे थे या कहें कि जिसकी वो आशा लगाए बैठे थे..यह ठीक वैसा ही है जैसा कि हम जब कोई बहुत सुखद स्वप्न देखते हैं और वो स्वप्न पूरा होने के पहले ही हमारी नींद टूट जाती है तो हम फिर से सोने की कोशिश करते हैं और उस स्वप्न में जाकर उस कहानी को पूरा करने की कोशिश करते हैं जो अधूरा रह गया था.. आलसीपन तो भारतीयों में इस तरह हावी है कि भारतीय इतिहासकारों ने भी बिना सोचे-समझे उसी यूनानी इतिहास को लिख दिया...
कुछ हिम्मत ग्रीक के फिल्म-निर्माता ओलिवर स्टोन ने दिखाई है जो उन्होंने कुछ हद तक सिकन्दर की हार को स्वीकार किया है..फिल्म में दिखाया गया है कि एक तीर सिकन्दर का सीना भेद देती है और इससे पहले कि वो शत्रु के हत्थे चढ़ता उससे पहले उसके सहयोगी उसे ले भागते हैं.इस फिल्म में ये भी कहा गया है कि ये उसके जीवन की सबसे भयानक त्रासदी थी और भारतीयों ने उसे तथा उसकी सेना को पीछे लौटने के लिए विवश कर दिया..चूँकि उस फिल्म का नायक सिकन्दर है इसलिए उसकी इतनी सी भी हार दिखाई गई है तो ये बहुत है,नहीं तो इससे ज्यादा सच दिखाने पर लोग उस फिल्म को ही पसन्द नहीं करते..वैसे कोई भी फिल्मकार अपने नायक की हार को नहीं दिखाता है.......
अब देखिए कि भारतीय बच्चे क्या पढ़ते हैं इतिहास में--"सिकन्दर ने पौरस को बंदी बना लिया था..उसके बाद जब सिकन्दर ने उससे पूछा कि उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाय तो पौरस ने कहा कि उसके साथ वही किया जाय जो एक राजा के साथ किया जाता है अर्थात मृत्यु-दण्ड..सिकन्दर इस बात से इतना अधिक प्रभावित हो गया कि उसने वो कार्य कर दिया जो अपने जीवन भर में उसने कभी नहीं किए थे..उसने अपने जीवन के एक मात्र ध्येय,अपना सबसे बड़ा सपना विश्व-विजेता बनने का सपना तोड़ दिया और पौरस को पुरस्कार-स्वरुप अपने जीते हुए कुछ राज्य तथा धन-सम्पत्ति प्रदान किए..तथा वापस लौटने का निश्चय किया और लौटने के क्रम में ही उसकी मृत्यु हो गई.."
ये कितना बड़ा तमाचा है उन भारतीय इतिहासकारों के मुँह पर कि खुद विदेशी ही ऐसी फिल्म बनाकर सिकंदर की हार को स्वीकार कर रहे रहे हैं और हम अपने ही वीरों का इसतरह अपमान कर रहे हैं......!!
मुझे तो लगता है कि ये भारतीयों का विशाल हृदयतावश उनका त्याग था जो अपनी इतनी बड़ी विजय गाथा यूनानियों के नाम कर दी..भारत दयालु और त्यागी है यह बात तो जग-जाहिर है और इस बात का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है..?क्या ये भारतीय इतिहासकारों की दयालुता की परिसीमा नहीं है..? वैसे भी रखा ही क्या था इस विजय-गाथा में; भारत तो ऐसी कितनी ही बड़ी-बड़ी लड़ाईयाँ जीत चुका है कितने ही अभिमानियों का सर झुका चुका है फिर उन सब विजय गाथाओं के सामने इस विजय-गाथा की क्या औकात.....है ना..?? उस समय भारत में पौरस जैसे कितने ही राजा रोज जन्मते थे और मरते थे तो ऐसे में सबका कितना हिसाब-किताब रखा जाय;वो तो पौरस का सौभाग्य था जो उसका नाम सिकन्दर के साथ जुड़ गया और वो भी इतिहास के पन्नों में अंकित हो गया(भले ही हारे हुए राजा के रुप में ही सही) नहीं तो इतिहास पौरस को जानती भी नहीं..
इतिहास सिकन्दर को विश्व-विजेता घोषित करती है पर अगर सिकन्दर ने पौरस को हरा भी दिया था तो भी वो विश्व-विजेता कैसे बन गया..? पौरस तो बस एक राज्य का राजा था..भारत में उस तरक के अनेक राज्य थे तो पौरस पर सिकन्दर की विजय भारत की विजय तो नहीं कही जा सकती और भारत तो दूर चीन,जापान जैसे एशियाई देश भी तो जीतना बाँकी ही था फिर वो विश्व-विजेता कहलाने का अधिकारी कैसे हो गया...?
जाने दीजिए....भारत में तो ऐसे अनेक राजा हुए जिन्होंने पूरे विश्व को जीतकर राजसूय यज्य करवाया था पर बेचारे यूनान के पास तो एक ही घिसा-पिटा योद्धा कुछ हद तक है ऐसा जिसे विश्व-विजेता कहा जा सकता है....तो.! ठीक है भाई यूनान वालों,संतोष कर लो उसे विश्वविजेता कहकर...!
महत्त्वपूर्ण बात ये कि सिकन्दर को सिर्फ विश्वविजेता ही नहीं बल्कि महान की उपाधि भी प्रदान की गई है और ये बताया जाता है कि सिकन्दर बहुत बड़ा हृदय वाला दयालु राजा था ताकि उसे महान घोषित किया जा सके क्योंकि सिर्फ लड़ कर लाखों लोगों का खून बहाकर एक विश्व-विजेता को महान की उपाधि नहीं दी सकती ना ; उसके अंदर मानवता के गुण भी होने चाहिए.इसलिए ये भी घोषित कर दिया गया कि सिकन्दर विशाल हृदय वाला एक महान व्यक्ति था..पर उसे महान घोषित करने के पीछे एक बहुत बड़ा उद्देश्य छुपा हुआ है और वो उद्देश्य है सिकन्दर की पौरस पर विजय को सिद्ध करना...क्योंकि यहाँ पर सिकन्दर की पौरस पर विजय को तभी सिद्ध किया जा सकता है जब यह सिद्ध हो जाय कि सिकन्दर बड़ा हृदय वाला महान व्यक्ति था..
अरे अगर सिकन्दर बड़ा हृदय वाला व्यक्ति होता तो उसे धन की लालच ना होती जो उसे भारत तक ले आई थी और ना ही धन के लिए इतने लोगों का खून बहाया होता उसने..इस बात को उस फिल्म में भी दिखाया गया है कि सिकन्दर को भारत के धन(सोने,हीरे-मोतियों) से लोभ था.. यहाँ ये बात सोचने वाली है कि जो व्यक्ति धन के लिए इतनी दूर इतना कठिन रास्ता तय करके भारत आ जाएगा वो पौरस की वीरता से खुश होकर पौरस को जीवन-दान भले ही दे देगा और ज्यादा से ज्यादा उसकी मूल-भूमि भले ही उसे सौंप देगा पर अपना जीता हुआ प्रदेश पौरस को क्यों सौंपेगा..और यहाँ पर यूनानी इतिहासकारों की झूठ देखिए कैसे पकड़ा जाती है..एक तरफ तो पौरस पर विजय सिद्ध करने के लिए ये कह दिया उन्होंने कि सिकन्दर ने पौरस को उसका तथा अपना जीता हुआ प्रदेश दे दिया दूसरी तरफ फिर सिकन्दर के दक्षिण दिशा में जाने का ये कारण देते हैं कि और अधिक धन लूटने तथा और अधिक प्रदेश जीतने के लिए सिकन्दर दक्षिण की दिशा में गया...बताइए कि कितना बड़ा कुतर्क है ये....! सच्चाई ये थी कि पौरस ने उसे उत्तरी मार्ग से जाने की अनुमति ही नहीं दी थी..ये पौरस की दूरदर्शिता थी क्योंकि पौरस को शक था कि ये उत्तर से जाने पर अपनी शक्ति फिर से इकट्ठा करके फिर से हमला कर सकता है जैसा कि बाद में मुस्लिम शासकों ने किया भी..पौरस को पता था कि दक्षिण की खूँखार जाति सिकन्दर को छोड़ेगी नहीं और सच में ऐसा हुआ भी...उस फिल्म में भी दिखाया गया है कि सिकन्दर की सेना भारत की खूँखार जन-जाति से डरती है ..
अब बताइए कि जो पहले ही डर रहा हो वो अपने जीते हुए प्रदेश यनि उत्तर की तरफ से वापस जाने के बजाय मौत के मुँह में यनि दक्षिण की तरफ से क्यों लौटेगा तथा जो व्यक्ति और ज्यादा प्रदेश जीतने के लिए उस खूँखार जनजाति से भिड़ जाएगा वो अपना पहले का जीता हुआ प्रदेश एक पराजित योद्धा को क्यों सौंपेगा....? और खूँखार जनजाति के पास कौन सा धन मिलने वाला था उसे.....?
अब देखिए कि सच्चाई क्या है....
जब सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार किया तो भारत में उत्तरी क्षेत्र में तीन राज्य थे-झेलम नदी के चारों ओर राजा अम्भि का शासन था जिसकी राजधानी तक्षशिला थी..पौरस का राज्य चेनाब नदी से लगे हुए क्षेत्रों पर था.तीसरा राज्य अभिसार था जो कश्मीरी क्षेत्र में था.अम्भि का पौरस से पुराना बैर था इसलिए सिकन्दर के आगमण से अम्भि खुश हो गया और अपनी शत्रुता निकालने का उपयुक्त अवसर समझा..अभिसार के लोग तटस्थ रह गए..इस तरह पौरस ने अकेले ही सिकन्दर तथा अम्भि की मिली-जुली सेना का सामना किया.."प्लूटार्च" के अनुसार सिकन्दर की बीस हजार पैदल सैनिक तथा पन्द्रह हजार अश्व सैनिक पौरस की युद्ध क्षेत्र में एकत्र की गई सेना से बहुत ही अधिक थी..सिकन्दर की सहायता फारसी सैनिकों ने भी की थी..कहा जाता है कि इस युद्ध के शुरु होते ही पौरस ने महाविनाश का आदेश दे दिया उसके बाद पौरस के सैनिकों ने तथा हाथियों ने जो विनाश मचाना शुरु किया कि सिकन्दर तथा उसके सैनिकों के सर पर चढ़े विश्वविजेता के भूत को उतार कर रख दिया..पोरस के हाथियों द्वारा यूनानी सैनिकों में उत्पन्न आतंक का वर्णन कर्टियस ने इस तरह से किया है--इनकी तुर्यवादक ध्वनि से होने वाली भीषण चीत्कार न केवल घोड़ों को भयातुर कर देती थी जिससे वे बिगड़कर भाग उठते थे अपितु घुड़सवारों के हृदय भी दहला देती थी..इन पशुओं ने ऐसी भगदड़ मचायी कि अनेक विजयों के ये शिरोमणि अब ऐसे स्थानों की खोज में लग गए जहाँ इनको शरण मिल सके.उन पशुओं ने कईयों को अपने पैरों तले रौंद डाला और सबसे हृदयविदारक दृश्य वो होता था जब ये स्थूल-चर्म पशु अपनी सूँड़ से यूनानी सैनिक को पकड़ लेता था,उसको अपने उपर वायु-मण्डल में हिलाता था और उस सैनिक को अपने आरोही के हाथों सौंप देता था जो तुरन्त उसका सर धड़ से अलग कर देता था.इन पशुओं ने घोर आतंक उत्पन्न कर दिया था.....
इसी तरह का वर्णन "डियोडरस" ने भी किया है --विशाल हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए..उन्होंने अपने पैरों तले बहुत सारे सैनिकों की हड्डियाँ-पसलियाँ चूर-चूर कर दी.हाथी इन सैनिकों को अपनी सूँड़ों से पकड़ लेते थे और जमीन पर जोर से पटक देते थे..अपने विकराल गज-दन्तों से सैनिकों को गोद-गोद कर मार डालते थे...
इन पशुओं का आतंक उस फिल्म में भी दिखाया गया है..
अब विचार करिए कि डियोडरस का ये कहना कि उन हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए ये क्या सिद्ध करता है..फिर "कर्टियस" का ये कहना कि इन पशुओं ने आतंक मचा दिया था ये क्या सिद्ध करता है...?
अफसोस की ही बात है कि इस तरह के वर्णन होते हुए भी लोग यह दावा करते हैं कि पौरस को पकड़ लिया गया और उसके सेना को शस्त्र त्याग करने पड़े...
एक और विद्वान ई.ए. डब्ल्यू. बैज का वर्णन देखिए-उनके अनुसार झेलम के युद्ध में सिकन्दर की अश्व-सेना का अधिकांश भाग मारा गया था.सिकन्दर ने अनुभव कर लिया कि यदि अब लड़ाई जारी रखूँगा तो पूर्ण रुप से अपना नाश कर लूँगा.अतः सिकन्दर ने पोरस से शांति की प्रार्थना की -"श्रीमान पोरस मैंने आपकी वीरता और सामर्थ्य स्वीकार कर ली है..मैं नहीं चाहता कि मेरे सारे सैनिक अकाल ही काल के गाल में समा जाय.मैं इनका अपराधी हूँ,....और भारतीय परम्परा के अनुसार ही पोरस ने शरणागत शत्रु का वध नहीं किया.----ये बातें किसी भारतीय द्वारा नहीं बल्कि एक विदेशी द्वारा कही गई है..
और इसके बाद भी अगर कोई ना माने तो फिर हम कैसे मानें कि पोरस के सिर को डेरियस के सिर की ही भांति काट लाने का शपथ लेकर युद्ध में उतरे सिकन्दर ने न केवल पोरस को जीवन-दान दिया बल्कि अपना राज्य भी दिया...
सिकन्दर अपना राज्य उसे क्या देगा वो तो पोरस को भारत के जीते हुए प्रदेश उसे लौटाने के लिए विवश था जो छोटे-मोटे प्रदेश उसने पोरस से युद्ध से पहले जीते थे...(या पता नहीं जीते भी थे या ये भी यूनानियों द्वारा गढ़ी कहानियाँ हैं)
इसके बाद सिकन्दर को पोरस ने उत्तर मार्ग से जाने की अनुमति नहीं दी.विवश होकर सिकन्दर को उस खूँखार जन-जाति के कबीले वाले रास्ते से जाना पड़ा जिससे होकर जाते-जाते सिकन्दर इतना घायल हो गया कि अंत में उसे प्राण ही त्यागने पड़े..इस विषय पर "प्लूटार्च" ने लिखा है कि मलावी नामक भारतीय जनजाति बहुत खूँखार थी..इनके हाथों सिकन्दर के टुकड़े-टुकड़े होने वाले थे लेकिन तब तक प्यूसेस्तस और लिम्नेयस आगे आ गए. इसमें से एक तो मार ही डाला गया और दूसरा गम्भीर रुप से घायल हो गया...तब तक सिकन्दर के अंगरक्षक उसे सुरक्षित स्थान पर लेते गए..
स्पष्ट है कि पोरस के साथ युद्ध में तो इनलोगों का मनोबल टूट ही चुका था रहा सहा कसर इन जनजातियों ने पूरी कर दी थी..अब इनलोगों के अंदर ये तो मनोबल नहीं ही बचा था कि किसी से युद्ध करे पर इतना भी मनोबल शेष ना रह गया था कि ये समुद्र मार्ग से लौटें...क्योंकि स्थल मार्ग के खतरे को देखते हुए सिकन्दर ने समुद्र मार्ग से जाने का सोचा और उसके अनुसंधान कार्य के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेज भी दी पर उनलोगों में इतना भी उत्साह शेष ना रह गया था फलतः वे बलुचिस्तान के रास्ते ही वापस लौटे....
अब उसके महानता के बारे में भी कुछ विद्वानों के वर्णन देखिए...
एरियन के अनुसार जब बैक्ट्रिया के बसूस को बंदी बनाकर सिकन्दर के सम्मुख लाया गया तब सिकन्दर ने अपने सेवकों से उसको कोड़े लगवाए तथा उसके नाक और कान काट कटवा दिए गए.बाद में बसूस को मरवा ही दिया गया.सिकन्दर ने कई फारसी सेनाध्यक्षों को नृशंसतापूर्वक मरवा दिया था.फारसी राजचिह्नों को धारण करने पर सिकन्दर की आलोचना करने के लिए उसने अपने ही गुरु अरस्तु के भतीजे कालस्थनीज को मरवा डालने में कोई संकोच नहीं किया.क्रोधावस्था में अपने ही मित्र क्लाइटस को मार डाला.उसके पिता का विश्वासपात्र सहायक परमेनियन भी सिकन्दर के द्वारा मारा गया था..जहाँ पर भी सिकन्दर की सेना गई उसने समस्त नगरों को आग लगा दी,महिलाओं का अपहरण किया और बच्चों को भी तलवार की धार पर सूत दिया..ईरान की दो शाहजादियों को सिकन्दर ने अपने ही घर में डाल रखा था.उसके सेनापति जहाँ-कहीं भी गए अनेक महिलाओं को बल-पूर्वक रखैल बनाकर रख लिए...
तो ये थी सिकन्दर की महानता....इसके अलावे इसके पिता फिलिप की हत्या का भी शक इतिहास ने इसी पर किया है कि इसने अपनी माता के साथ मिलकर फिलिप की हत्या करवाई क्योंकि फिलिप ने दूसरी शादी कर ली थी और सिकन्दर के सिंहासन पर बैठने का अवसर खत्म होता दिख रहा था..इस बात में किसी को संशय नहीं कि सिकन्दर की माता फिलिप से नफरत करती थी..दोनों के बीच सम्बन्ध इतने कटु थे कि दोनों अलग होकर जीवन बीता रहे थे...इसके बाद इसने अपने सौतेले भाई को भी मार डाला ताकि सिंहासन का और कोई उत्तराधिकारी ना रहे...
तो ये थी सिकन्दर की महानता और वीरता....
इसकी महानता का एक और उदाहरण देखिए-जब इसने पोरस के राज्य पर आक्रमण किया तो पोरस ने सिकन्दर को अकेले-अकेले यनि द्वंद्व युद्ध का निमंत्रण भेजा ताकि अनावश्यक नरसंहार ना हो और द्वंद्व युद्ध के जरिए ही निर्णय हो जाय पर इस वीरतापूर्ण निमंत्रण को सिकन्दर ने स्वीकार नहीं किया...ये किमवदन्ती बनकर अब तक भारत में विद्यमान है.इसके लिए मैं प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं समझता हूँ..
अब निर्णय करिए कि पोरस तथा सिकन्दर में विश्व-विजेता कौन था..? दोनों में वीर कौन था..?दोनों में महान कौन था..?
यूनान वाले सिकन्दर की जितनी भी विजय गाथा दुनिया को सुना ले सच्चाई यही है कि ना तो सिकन्दर विश्वविजेता था ना ही वीर(पोरस के सामने) ना ही महान(ये तो कभी वो था ही नहीं)....
जिस पोरस ने सिकन्दर जो लगभग पूरा विश्व को जीतता हुआ आ रहा था जिसके पास उतनी बड़ी विशाल सेना थी जिसका प्रत्यक्ष सहयोग अम्भि ने किया था उस सिकन्दर के अभिमान को अकेले ही चकना-चूरित कर दिया,उसके मद को झाड़कर उसके सर से विश्व-विजेता बनने का भूत उतार दिया उस पोरस को क्या इतिहास ने उचित स्थान दिया है......!...?
भारतीय इतिहासकारों ने तो पोरस को इतिहास में स्थान देने योग्य समझा ही नहीं है.इतिहास में एक-दो जगह इसका नाम आ भी गया तो बस सिकन्दर के सामने बंदी बनाए गए एक निर्बल निरीह राजा के रुप में..नेट पर भी पोरस के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है.....
आज आवश्यकता है कि नेताओं को धन जमा करने से अगर अवकाश मिल जाय तो वे इतिहास को फिर से जाँचने-परखने का कार्य करवाएँ ताकि सच्चाई सामने आ सके और भारतीय वीरों को उसका उचित सम्मान मिल सके..मैं नहीं मानता कि जो राष्ट्र वीरों का इस तरह अपमान करेगा वो राष्ट्र ज्यादा दिन तक टिक पाएगा...मानते हैं कि ये सब घटनाएँ बहुत पुरानी हैं इसके बाद भारत पर हुए अनेक हमले के कारण भारत का अपना इतिहास तो विलुप्त हो गया और उसके बाद मुसलमान शासकों ने अपनी झूठी-प्रशंसा सुनकर आनन्द प्राप्त करने में पूरी इतिहास लिखवाकर खत्म कर दी और जब देश आजाद हुआ भी तो कांग्रेसियों ने इतिहास लेखन का काम धूर्त्त अंग्रेजों को सौंप दिया ताकि वो भारतीयों को गुलम बनाए रखने का काम जारी रखे और अंग्रेजों ने इतिहास के नाम पर काल्पनिक कहानियों का पुलिंदा बाँध दिया ताकि भारतीय हमेशा यही समझते रहें कि उनके पूर्वज निरीह थे तथा विदेशी बहुत ही शक्तिशाली ताकि भारतीय हमेशा मानसिक गुलाम बने रहें विदेशियों का,पर अब तो कुछ करना होगा ना..???
इस लेख से एक और बात सिद्ध होती है कि जब भारत का एक छोटा सा राज्य अगर अकेले ही सिकन्दर को धूल चटा सकता है तो अगर भारत मिलकर रहता और आपस में ना लड़ता रहता तो किसी मुगलों या अंग्रेजों में इतनी शक्ति नहीं थी कि वो भारत का बाल भी बाँका कर पाता.कम से कम अगर भारतीय दुश्मनों का साथ ना देते तो भी उनमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वो भारत पर शासन कर पाते.भारत पर विदेशियों ने शासन किया है तो सिर्फ यहाँ की
आपसी दुश्मनी के कारण..
भारत में अनेक वीर पैदा हो गए थे एक ही साथ और यही भारत की बर्बादी का कारण बन गया क्योंकि सब शेर आपस में ही लड़ने लगे...महाभारत काल में इतने सारे महारथी,महावीर पैदा हो गए थे तो महाभारत का विध्वंशक युद्ध हुआ और आपस में ही लड़ मरने के कारण भारत तथा भारतीय संस्कृति का विनाश हो गया उसके बाद कलयुग में भी वही हुआ..जब भी किसी जगह वीरों की संख्या ज्यादा हो जाएगी तो उस जगह की रचना होने के बजाय विध्वंश हो जाएगा...
पर आज जरुरत है भारतीय शेरों को एक होने की...........क्योंकि अभी भारत में शेरों की बहुत ही कमी है और जरुरत है भारत की पुनर्रचना करने की......
Thursday, November 7, 2013
स्वतंत्रता दिवस को नजदीक से महसूस करने वाले एक सच्चे राष्ट्रप्रेमी पत्रकार श्री नरेन्द्र सहगल के शब्दों में वो दिन
स्वाधीनता का संकल्प पूरा करने के लिए चाहिए अखंड भारत -
पाकिस्तान की स्थापना की घोषणा होते ही देश के विभिन्न मुस्लिम बहुल इलाकों में मोहम्मद अली जिन्ना के इशारे पर हिन्दुओं पर कहर बरसने लगा. अखंड भारत समर्थक हिन्दू समाज का सामूहिक नरसंहार अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया.देश विभाजन के पहले और बाद में ३० लाख से ज्यादा लोगों की हत्याएं हुई.
जिस समय भारत विभाजन के पहले हस्ताक्षर और खंडित भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु दिल्ली में तिरंगा फहरा रहे थे उसी समय पाकिस्तान से उजड़े और खून से लथपथ लाखों हिन्दू भारत की सीमा में पहुँच रहे थे. अमृतसर ,फिरोजपुर, गुरदासपुर, इत्यादी भारतीय इलाकों में पहुँचने वाली लाशों और घायलों से भरी हुई गाड़ियाँ , आज़ादी अर्थात भारत विभाजन की कीमत अदा कर रही थी.
भारत की इस कथित आज़ादी के लिए हुए असंख्य बलिदान ,फांसी के फंदों ,नरसंहार , निर्बलों के चीत्कार के बीच उस समय कलेजा कांप उठा जब हमारे कानो में नेताओं द्वारा गाये जा रहे एक गीत की ये पंक्तियाँ सुनाई दी-
" दे दी हमे आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल ;
साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल! "
इसी गीत में ये कहकर "चुटकी में दुश्मनों को दिया देश से निकाल " गीतकार ने १२०० वर्ष तक निरंतर चले स्वतंत्रता संघर्ष को ही नकार दिया है. इस गीत से ऐसा लगता है मनो हिब्दु सम्राट दाहिर, दिल्लीपति पृथ्वी राज चौहान ,राणा सांगा, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी ,श्री गुरु गोविन्द सिंह, वीर सावरकर, सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगत सिंह जैसे स्वतंत्रता संग्राम के हजारों नायकों और महापुरुषों को साबरमती के संत की चुटकी का ही इंतज़ार था.
चुटकी की सच्चाई तो ये है की इसियो चुटकी ने पूरे भारत की पूरी स्वतंत्रता के लिए लगातार १२०० वर्षों तक चले संघर्ष की पीठ में छुरा घोंपकर ,भारत का विभाजन स्वीकार करके स्वतंत्रता संग्राम को नकार दिया ! दुनिया के नक़्शे पर उभर आया ये पाकिस्तान भारत पर हुए विदेशी आक्रमणकारियों का पहला विजय स्तम्भ है !
दुनिया के अमन चैन और मानवीय सभ्यता को बचाने के लिए दुनिया के नक़्शे से पाकिस्तान को मिटाना जरूरी है. यह बात सभी गैर-इस्लामिक देश समझते हैं परन्तु अपने भौगोलिक और सैनिक स्वार्थों के चलते कुछ नहीं करते .अतः सरे संसार की भलाई के लिए यह काम भारत को ही करना है! १५ अगस्त १९४७ को विभाजित हुआ भारत नहीं , बल्कि शक्ति का संचार करता हुआ उससे पूर्व का अखंड भारत ! वस्तुतः अखंड भारत ही विश्व शांति की गारंटी है ! यह स्वतंत्रता दिवस उसी का संकल्प है!
पाकिस्तान की स्थापना की घोषणा होते ही देश के विभिन्न मुस्लिम बहुल इलाकों में मोहम्मद अली जिन्ना के इशारे पर हिन्दुओं पर कहर बरसने लगा. अखंड भारत समर्थक हिन्दू समाज का सामूहिक नरसंहार अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया.देश विभाजन के पहले और बाद में ३० लाख से ज्यादा लोगों की हत्याएं हुई.
जिस समय भारत विभाजन के पहले हस्ताक्षर और खंडित भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु दिल्ली में तिरंगा फहरा रहे थे उसी समय पाकिस्तान से उजड़े और खून से लथपथ लाखों हिन्दू भारत की सीमा में पहुँच रहे थे. अमृतसर ,फिरोजपुर, गुरदासपुर, इत्यादी भारतीय इलाकों में पहुँचने वाली लाशों और घायलों से भरी हुई गाड़ियाँ , आज़ादी अर्थात भारत विभाजन की कीमत अदा कर रही थी.
भारत की इस कथित आज़ादी के लिए हुए असंख्य बलिदान ,फांसी के फंदों ,नरसंहार , निर्बलों के चीत्कार के बीच उस समय कलेजा कांप उठा जब हमारे कानो में नेताओं द्वारा गाये जा रहे एक गीत की ये पंक्तियाँ सुनाई दी-
" दे दी हमे आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल ;
साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल! "
इसी गीत में ये कहकर "चुटकी में दुश्मनों को दिया देश से निकाल " गीतकार ने १२०० वर्ष तक निरंतर चले स्वतंत्रता संघर्ष को ही नकार दिया है. इस गीत से ऐसा लगता है मनो हिब्दु सम्राट दाहिर, दिल्लीपति पृथ्वी राज चौहान ,राणा सांगा, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी ,श्री गुरु गोविन्द सिंह, वीर सावरकर, सुभाष चन्द्र बोस, सरदार भगत सिंह जैसे स्वतंत्रता संग्राम के हजारों नायकों और महापुरुषों को साबरमती के संत की चुटकी का ही इंतज़ार था.
चुटकी की सच्चाई तो ये है की इसियो चुटकी ने पूरे भारत की पूरी स्वतंत्रता के लिए लगातार १२०० वर्षों तक चले संघर्ष की पीठ में छुरा घोंपकर ,भारत का विभाजन स्वीकार करके स्वतंत्रता संग्राम को नकार दिया ! दुनिया के नक़्शे पर उभर आया ये पाकिस्तान भारत पर हुए विदेशी आक्रमणकारियों का पहला विजय स्तम्भ है !
दुनिया के अमन चैन और मानवीय सभ्यता को बचाने के लिए दुनिया के नक़्शे से पाकिस्तान को मिटाना जरूरी है. यह बात सभी गैर-इस्लामिक देश समझते हैं परन्तु अपने भौगोलिक और सैनिक स्वार्थों के चलते कुछ नहीं करते .अतः सरे संसार की भलाई के लिए यह काम भारत को ही करना है! १५ अगस्त १९४७ को विभाजित हुआ भारत नहीं , बल्कि शक्ति का संचार करता हुआ उससे पूर्व का अखंड भारत ! वस्तुतः अखंड भारत ही विश्व शांति की गारंटी है ! यह स्वतंत्रता दिवस उसी का संकल्प है!
Wednesday, November 6, 2013
वह ख़ून कहो किस मतलब का आ सके देश के काम नहीं !
वह ख़ून कहो किस मतलब का
जिसमें उबाल का नाम नहीं
वह ख़ून कहो किस मतलब का
आ सके देश के काम नहीं
वह ख़ून कहो किस मतलब का
जिसमें जीवन न रवानी है
जो परवश में होकर बहता है
वह ख़ून नहीं है पानी है
आज़ादी का संग्राम कहीं
पैसे पर खेला जाता है?
ये शीश कटाने का सौदा
नंगे सर झेला जाता है
उस दिन लोगों ने सही सही
खूँ की कीमत पहचानी थी
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में
मांगी उनसे कुर्बानी थी
बोले स्वतंत्रता की खातिर
बलिदान तुमहे करना होगा
बहुत जी चुके हो जग में
लेकिन आगे मरना होगा
यह कहते कहते वक्ता की
आंखों में खून उतर आया
मुख रक्त वर्ण हो गया
दमक उठी उनकी रक्तिम काया
आजानु बाहु ऊंचा करके
वे बोले रक्त मुझे देना
इसके बदले में भारत की
आज़ादी तुम मुझसे लेना
वह आगे आए जिसकी रग में
खून भारतीय बहता है
वह आगे आए जो ख़ुद को
हिन्दुस्तानी कहता है
सारी जनता हुंकार उठी
हम आते हैं, हम आते हैं
माता के चरणों में लो
हम अपना रक्त चढाते हैं
हम देंगे देंगे ख़ून
स्वर बस यही सुनाई देते थे
रण में जाने को युवक
खड़े तैयार दिखाई देते थे
बोले सुभाष इस तरह नहीं
बातों से मतलब सरता है
मैं कलम बढ़ता हूँ, आये
जो खूनी हस्ताक्षर करता है
पर यह साधारण पत्र नहीं
आज़ादी का परवाना है
इसपर तुमको अपने तन का
कुछ उज्ज्वल रक्त गिराना है
साहस से बढे युवक उस दिन
देखा बढते ही आते थे
चाकू छुरी कटारियों से
वे अपना रक्त गिराते थे
फिर उसी रक्त की स्याही में
वे अपना कलम डुबोते थे
आज़ादी के परवाने पर
हस्ताक्षर करते जाते थे
आज़ादी का इतिहास कहीं
काली स्याही लिख पाई है?
इसको पाने को वीरों ने
खून की नदी बहाई है
उस दिन तारों ने देखा था
हिन्दुस्तानी विश्वास नया
लिखा था जब रणवीरों ने
खूँ से अपना इतिहास नया
जिसमें उबाल का नाम नहीं
वह ख़ून कहो किस मतलब का
आ सके देश के काम नहीं
वह ख़ून कहो किस मतलब का
जिसमें जीवन न रवानी है
जो परवश में होकर बहता है
वह ख़ून नहीं है पानी है
आज़ादी का संग्राम कहीं
पैसे पर खेला जाता है?
ये शीश कटाने का सौदा
नंगे सर झेला जाता है
उस दिन लोगों ने सही सही
खूँ की कीमत पहचानी थी
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में
मांगी उनसे कुर्बानी थी
बोले स्वतंत्रता की खातिर
बलिदान तुमहे करना होगा
बहुत जी चुके हो जग में
लेकिन आगे मरना होगा
यह कहते कहते वक्ता की
आंखों में खून उतर आया
मुख रक्त वर्ण हो गया
दमक उठी उनकी रक्तिम काया
आजानु बाहु ऊंचा करके
वे बोले रक्त मुझे देना
इसके बदले में भारत की
आज़ादी तुम मुझसे लेना
वह आगे आए जिसकी रग में
खून भारतीय बहता है
वह आगे आए जो ख़ुद को
हिन्दुस्तानी कहता है
सारी जनता हुंकार उठी
हम आते हैं, हम आते हैं
माता के चरणों में लो
हम अपना रक्त चढाते हैं
हम देंगे देंगे ख़ून
स्वर बस यही सुनाई देते थे
रण में जाने को युवक
खड़े तैयार दिखाई देते थे
बोले सुभाष इस तरह नहीं
बातों से मतलब सरता है
मैं कलम बढ़ता हूँ, आये
जो खूनी हस्ताक्षर करता है
पर यह साधारण पत्र नहीं
आज़ादी का परवाना है
इसपर तुमको अपने तन का
कुछ उज्ज्वल रक्त गिराना है
साहस से बढे युवक उस दिन
देखा बढते ही आते थे
चाकू छुरी कटारियों से
वे अपना रक्त गिराते थे
फिर उसी रक्त की स्याही में
वे अपना कलम डुबोते थे
आज़ादी के परवाने पर
हस्ताक्षर करते जाते थे
आज़ादी का इतिहास कहीं
काली स्याही लिख पाई है?
इसको पाने को वीरों ने
खून की नदी बहाई है
उस दिन तारों ने देखा था
हिन्दुस्तानी विश्वास नया
लिखा था जब रणवीरों ने
खूँ से अपना इतिहास नया
Tuesday, November 5, 2013
गर्व से कहो हम हिन्दू है ,क्यों ? - 6
१)मैंने यूरोप और एशिया के सभी धर्मों का अध्ययन किया है,परन्तु मुझे उन सब में हिन्दू धर्म सर्वश्रेष्ठ दिखाई देता है| मेरा विश्वास है की इसके सामने एक दिन समस्त जगत को सर झुकाना पड़ेगा.मानव जाती के अस्तित्व के प्रारंभ के दिनों से लेकर पृथ्वी पर जहाँ जीवित मनुष्यों के सब प्रकार के स्वप्न साकार हुए हैं वह एकमात्र स्थान है भारत|
- रोमां रोलां(फ्रेंच विद्वान)
२)मैंने ४० वर्षों तक विश्व के सभी बड़े धर्मों का अध्ययन करके पाया की हिन्दू धर्म के सामान पूर्ण,महँ और वैज्ञानिक धर्म कोई नहीं है|यदि आप हिन्दू धर्म छोड़ते हैं तो आप अपनी भारत माता के ह्रदय में छुरा भोंकते हैं|यदि हिन्दू ही हिन्दू धर्म को न बचा सके तो और कौन बचाएगा?यदि भारत की संतान अपने धर्म पर दृढ़ न रही तो कौन इस धर्म की रक्षा करेगा?
- डा.एनी बेसेंट(इंग्लिश विद्वान)
३)जब हम पूर्व की और उसमे भी शिरोमानिस्वरूप भारत की साहित्यिक एवं दार्शनिक महँ कृतियों का अवलोकन करते हैं,तब हमे ऐसे अनेक गंभीर सत्यों का पता चलता है,जिनकी उन निष्कर्षों से तूलना करने पर की जहाँ पहुँच कर यूरोपीय प्रतिभा कभी-कभी रुक गयी ,हमे पूर्व के आगे घुटने टेक देने पड़ते हैं-विक्टर कजिन्स(अमेरिकेन इतिहासकार)
४)जीवन को ऊँचा उठाने वाला उपनिषदों के समान दूसरा कोई अध्ययन का विषय संपूर्ण दुनिया में नहीं है|इनसे मेरे जीवन को शांति मिली है,इन्ही से मुझे मृत्यु के समय भी शांति मिलेगी|-शापन्हार(जर्मन पंडित)
५)उपनिषदों में वर्णित पूर्वी आदर्शवाद के प्रचुर प्रकाशपुंज की तुलना में यूरोपवासियों का उच्चतम तत्वज्ञान ऐसा लगता है जैसे दोपहर के सूर्य के व्योम्व्यापी प्रकाश की पूर्ण प्रखरता में टिमटिमाती हुई अनाल्शिखा की कोई चिंगारी जिसकी अस्थिर और निस्तेज ज्योति ऐसी हो रही है मानो,अब बुझी की अब बुझी|
६)उपनिषदों की दार्शनिक धाराएँ न केवल भारत में ,संभवतः संपूर्ण विश्व में अतुलनीय है|-पॉल ड्युसन(अमेरिका)
७)यूरोप के प्रथम दार्शनिक प्लेटो और पायथागोरस ,दोनों ने दर्शनशास्त्र का ज्ञान भारतीय गुरुओं से प्राप्त किया था|-मोनियर विलियम्स(प्रसिद्द दार्शनिक )
८)पाश्चात्य दर्शनशास्त्र के आदिगुरू आर्य महर्षि है,इसमें संदेह नहीं|-लैबनिट्ज़(जर्मन इतिहासकार)
९)प्राचीन युग की सभी स्मरणीय वस्तुओं में भगवद्गीता से श्रेष्ठ कोई भी वास्तु नहीं है|गीता के साथ तुलना करने पर जगत का समस्त आधुनिक ज्ञान मुझे तुच्छ लगता है|मैं नित्य प्रातःकाल अपने ह्रदय और बुद्धि को गीता रूपी पवित्र जल में स्नान कराता हूँ|-एच.डी.थोरो(अमेरिकी दार्शनिक)
१०)भारतवर्ष का धर्मग्रन्थ गीता में बुद्धि की प्रखरता,आचार की उत्कृष्टता और धार्मिक उत्साह का एक अपूर्व मिश्रण उपस्थित करता है|-डा.मेक्नोक
- रोमां रोलां(फ्रेंच विद्वान)
२)मैंने ४० वर्षों तक विश्व के सभी बड़े धर्मों का अध्ययन करके पाया की हिन्दू धर्म के सामान पूर्ण,महँ और वैज्ञानिक धर्म कोई नहीं है|यदि आप हिन्दू धर्म छोड़ते हैं तो आप अपनी भारत माता के ह्रदय में छुरा भोंकते हैं|यदि हिन्दू ही हिन्दू धर्म को न बचा सके तो और कौन बचाएगा?यदि भारत की संतान अपने धर्म पर दृढ़ न रही तो कौन इस धर्म की रक्षा करेगा?
- डा.एनी बेसेंट(इंग्लिश विद्वान)
३)जब हम पूर्व की और उसमे भी शिरोमानिस्वरूप भारत की साहित्यिक एवं दार्शनिक महँ कृतियों का अवलोकन करते हैं,तब हमे ऐसे अनेक गंभीर सत्यों का पता चलता है,जिनकी उन निष्कर्षों से तूलना करने पर की जहाँ पहुँच कर यूरोपीय प्रतिभा कभी-कभी रुक गयी ,हमे पूर्व के आगे घुटने टेक देने पड़ते हैं-विक्टर कजिन्स(अमेरिकेन इतिहासकार)
४)जीवन को ऊँचा उठाने वाला उपनिषदों के समान दूसरा कोई अध्ययन का विषय संपूर्ण दुनिया में नहीं है|इनसे मेरे जीवन को शांति मिली है,इन्ही से मुझे मृत्यु के समय भी शांति मिलेगी|-शापन्हार(जर्मन पंडित)
५)उपनिषदों में वर्णित पूर्वी आदर्शवाद के प्रचुर प्रकाशपुंज की तुलना में यूरोपवासियों का उच्चतम तत्वज्ञान ऐसा लगता है जैसे दोपहर के सूर्य के व्योम्व्यापी प्रकाश की पूर्ण प्रखरता में टिमटिमाती हुई अनाल्शिखा की कोई चिंगारी जिसकी अस्थिर और निस्तेज ज्योति ऐसी हो रही है मानो,अब बुझी की अब बुझी|
६)उपनिषदों की दार्शनिक धाराएँ न केवल भारत में ,संभवतः संपूर्ण विश्व में अतुलनीय है|-पॉल ड्युसन(अमेरिका)
७)यूरोप के प्रथम दार्शनिक प्लेटो और पायथागोरस ,दोनों ने दर्शनशास्त्र का ज्ञान भारतीय गुरुओं से प्राप्त किया था|-मोनियर विलियम्स(प्रसिद्द दार्शनिक )
८)पाश्चात्य दर्शनशास्त्र के आदिगुरू आर्य महर्षि है,इसमें संदेह नहीं|-लैबनिट्ज़(जर्मन इतिहासकार)
९)प्राचीन युग की सभी स्मरणीय वस्तुओं में भगवद्गीता से श्रेष्ठ कोई भी वास्तु नहीं है|गीता के साथ तुलना करने पर जगत का समस्त आधुनिक ज्ञान मुझे तुच्छ लगता है|मैं नित्य प्रातःकाल अपने ह्रदय और बुद्धि को गीता रूपी पवित्र जल में स्नान कराता हूँ|-एच.डी.थोरो(अमेरिकी दार्शनिक)
१०)भारतवर्ष का धर्मग्रन्थ गीता में बुद्धि की प्रखरता,आचार की उत्कृष्टता और धार्मिक उत्साह का एक अपूर्व मिश्रण उपस्थित करता है|-डा.मेक्नोक
Monday, November 4, 2013
गर्व से कहो हम हिन्दू हैं ,क्यों ? - 5
१)गणितज्ञ रामानुजम ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफ हार्डी के साथ सम्भावना सिद्धांत(प्रोबबिलिटी थियोरी )की खोज की. रामानुजम की मौलिक प्रतिभा को स्वयं हार्डी ने १०० में से १०० अंक दिए,जबकि स्वयं को केवल २५!
२)शुन्य की परिकल्पना और दशमलव प्रणाली भारत के हिन्दू मनीषियों की ही खोज है.
३)प्राचीन हिन्दू गणित के सहारे (वैदिक गणित )कठिन से कठिन गणितीय प्रश्नों का एक या दो पंक्तियों में मौखिक उत्तर संभव है.
४)कंप्यूटर में सभी तरह की गणना के लिए प्रयुक्त द्वयंक संख्या(बाइनेरी नंबर सिस्टम) की संकल्पना हिन्दू पुरानों में हजारों वर्ष पूर्व अस्तित्व में थी.
५)समय की सबसे सूक्ष्म(त्रुटी -१/३३७५० सेकेण्ड) और सबसे बड़ी गणना(कल्प-४३,२०,०००,००० वर्ष) भास्कराचार्य ने बहुत पहले ही कर दी.
६)भारतीय कल गणना के अनुसार सृष्टि का निर्माण हुए अब तक १,९७,२९,४९,११२ वर्ष हो चुके हैं.और १ वर्ष की गणना है-३६५.२५९७४८४ दिन.
७)केनेडियन विद्वान जे बी स्पार्क्स ने विश्व के अध्ययन के बाद एक विशिष्ट मानचित्र तैयार किया ,जिसे हिस्तोमेप कहा गया.यह मानचित्र
इसा पूर्व २००० से १९७५ ई तक विश्व सभ्यताओं को दर्शाता है.उन्होंने केवल दो सभ्यताओं को लगातार विद्यमान दिखाया है- हिन्दू और चीन ,चीनी सभ्यता से भी प्राचीन है हिन्दू सभ्यता.
८)प्रसिद्द वेबस्टर के शब्दकोष में ऐसे अनेक शब्द दिए हुए हैं (विश्व की अन्य भाषाओँ के )जिनके मूल संस्कृत हैं.जैसे संस्कृत के नाम शब्द को ग्रीक में नेम और जापान में नम कहा जाता है;और हमारे मस्तिष्क के ऊपर के भाग को शिरोब्रह्म (अंग्रेजी में-सेरिब्राम) और पार्श्व भाग को शिरोविलोम (अंग्रेजी में-सेरिबेल्लम )कहा जाता है.
९)ग्रीस के महँ दार्शनिक प्लेटो ने लिखा है की भारतीय उनके देश में ईसा पूर्व ३०० साल से भी पहले से वानस्पतिक औषधियां व्यापर के लिए लाते थे.हिप्पोक्रेटीस ने तो एक प्रकार की औषधि का नाम ही भारतीय औषधि बताया है.
१०)गणितज्ञ पयथोगरस ने उनके विद्यार्थियों के लिए भारतीय ब्रह्मचर्याश्रम को अपना लिया था.उसे विश्वास था की हिंन्दु मतानुसार आत्मा अमर है और पुनर्जन्म भी होता है.
२)शुन्य की परिकल्पना और दशमलव प्रणाली भारत के हिन्दू मनीषियों की ही खोज है.
३)प्राचीन हिन्दू गणित के सहारे (वैदिक गणित )कठिन से कठिन गणितीय प्रश्नों का एक या दो पंक्तियों में मौखिक उत्तर संभव है.
४)कंप्यूटर में सभी तरह की गणना के लिए प्रयुक्त द्वयंक संख्या(बाइनेरी नंबर सिस्टम) की संकल्पना हिन्दू पुरानों में हजारों वर्ष पूर्व अस्तित्व में थी.
५)समय की सबसे सूक्ष्म(त्रुटी -१/३३७५० सेकेण्ड) और सबसे बड़ी गणना(कल्प-४३,२०,०००,००० वर्ष) भास्कराचार्य ने बहुत पहले ही कर दी.
६)भारतीय कल गणना के अनुसार सृष्टि का निर्माण हुए अब तक १,९७,२९,४९,११२ वर्ष हो चुके हैं.और १ वर्ष की गणना है-३६५.२५९७४८४ दिन.
७)केनेडियन विद्वान जे बी स्पार्क्स ने विश्व के अध्ययन के बाद एक विशिष्ट मानचित्र तैयार किया ,जिसे हिस्तोमेप कहा गया.यह मानचित्र
इसा पूर्व २००० से १९७५ ई तक विश्व सभ्यताओं को दर्शाता है.उन्होंने केवल दो सभ्यताओं को लगातार विद्यमान दिखाया है- हिन्दू और चीन ,चीनी सभ्यता से भी प्राचीन है हिन्दू सभ्यता.
८)प्रसिद्द वेबस्टर के शब्दकोष में ऐसे अनेक शब्द दिए हुए हैं (विश्व की अन्य भाषाओँ के )जिनके मूल संस्कृत हैं.जैसे संस्कृत के नाम शब्द को ग्रीक में नेम और जापान में नम कहा जाता है;और हमारे मस्तिष्क के ऊपर के भाग को शिरोब्रह्म (अंग्रेजी में-सेरिब्राम) और पार्श्व भाग को शिरोविलोम (अंग्रेजी में-सेरिबेल्लम )कहा जाता है.
९)ग्रीस के महँ दार्शनिक प्लेटो ने लिखा है की भारतीय उनके देश में ईसा पूर्व ३०० साल से भी पहले से वानस्पतिक औषधियां व्यापर के लिए लाते थे.हिप्पोक्रेटीस ने तो एक प्रकार की औषधि का नाम ही भारतीय औषधि बताया है.
१०)गणितज्ञ पयथोगरस ने उनके विद्यार्थियों के लिए भारतीय ब्रह्मचर्याश्रम को अपना लिया था.उसे विश्वास था की हिंन्दु मतानुसार आत्मा अमर है और पुनर्जन्म भी होता है.
Saturday, November 2, 2013
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